सुरेंद्र बांसल
भारत नदियों की संस्कृति का वारिस है। यहां की तमाम नदियां करोड़ों लोगों की आजीविका का स्थायी स्रोत होने के साथ-साथ जैव विविधता, पर्यावरण और पारिस्थितिक संतुलन की पोषक रही हैं। यहां तमाम नदियां मात्र जल स्रोत नहीं मानी जाती हैं बल्कि मातृ रूप में पूजित हैं। ऋग्वेद में वर्णित सरस्वती नदी भी इनमें से एक थी। करीब पांच हजार वर्ष पहले सरस्वती के विलुप्त होने के कारण चाहे कुछ भी रहे हों, लेकिन उसकी याद दिलाने वाले स्तोत्र को करोड़ों लोग आज भी गुनगुनाते हैं। हजारों वर्ष पहले विलुप्त हुई सरस्वती नदी से जुड़ी मामूली खबर भी सरकारों और आमजन के लिए कौतूहल का विषय बन जाती है। पर आज हमारी गैर-जिम्मेदार और संवेदनहीन जीवन शैली के कारण नदियों, तालाबों समेत तमाम प्राकृतिक जलस्रोत न केवल दूषित होते जा रहे हैं बल्कि दम भी तोड़ रहे हैं। अपने देश की कोई भी सांस्कृतिक गाथा नदियों के पुण्यधर्मी प्रवाह को बिसरा कर नहीं लिखी जा सकती। लेकिन आज हम नदियों के महत्व को भूलकर उन्हें बर्बाद करने पर तुले हुए हैं। इसी का नतीजा है कि चारों ओर जल संकट छाया हुआ है। हमें इस बात का एहसास जितनी जल्दी हो जाए उतना ही अच्छा है कि अगर हम जल संस्कृति के वारिस रहना चाहते हैं, तो हमें नदियों, तालाबों, जोहड़ों, डबरों, बावड़ियों, कुओं और अन्य जलस्रोतों को पुनर्जीवित करने का प्रण लेना होगा।
जल संस्कृति के वारिस